कोई होता नहीं है जान, जान कहने से
ज़मीं ज़मीं ही रही आसमान कहने से
झुलस तो अब भी रहा है मेरा ये जिस्म हुज़ूर
धूप बदली कहाँ है सायबान* कहने से — छाँव देने वाला
न रहो तुम मुग़ालते* में, कुछ नहीं हासिल — गलतफ़हमी
किसी सेहरा को यहाँ गुलसितान कहने से
न मिला चैन ना पनाह ना खुशी ही मिली
किसी खंड़हर को यां अपना मकान कहने से
वो मुझ से दूर ही था और दूर ही वो रहा
कोई फ़रक़ न था दिल की ज़ुबान कहने से
वो तो मिट्टी का था, मिट्टी में ही फ़ना भी हुआ
बदल गया है क्या उसको महान कहने से
सफ़र तो अब भी तेरा चल रहा है पहले सा
नहीं रुकता कोई रोकर थकान कहने से
वो अब भी लड़ रहे हैं तेरे मेरे मज़हब पर
कोई समझा नहीं गीता क़ुरान कहने से
वही ‘रोहित’ वही ग़म और ज़िंदगी भी वही
कहाँ बदला ज़रा वो शादमान* कहने से — खुश
रोहित जैन
12-07-2009
वो अब भी लड़ रहे हैं तेरे मेरे मज़हब पर
कोई समझा नहीं गीता क़ुरान कहने से
वही ‘रोहित’ वही ग़म और ज़िंदगी भी वही
कहाँ बदला ज़रा वो शादमान* कहने से
बेहतरीन…रोहित जी बहुत अरसे बाद आपको पढ़ा है…बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने…दाद कबूल करें.
नीरज
वो अब भी लड़ रहे हैं तेरे मेरे मज़हब पर
कोई समझा नहीं गीता क़ुरान कहने से
लाजवाब वैसे तो सारी रचना बहुत खूब्सूरत है बहुत बडिया् लिखते हैं बधाई
वाह रोहित भाई ख़ूब ग़ज़ल कहीं, अशआर दिल में समा गये!
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लाजवाब है भाई जान …
मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति
every word is powerful & strong…interesting.
वो अब भी लड़ रहे हैं तेरे मेरे मज़हब पर
कोई समझा नहीं गीता क़ुरान कहने से
वही ‘रोहित’ वही ग़म और ज़िंदगी भी वही
कहाँ बदला ज़रा वो शादमान* कहने से
waah kya baat hai Rohit jee
bahut acche rohit bhai. really inspirational……