मंज़िलें दिखती नहीं बस छा रहीं हैं दूरियाँ

मंज़िलें दिखती नहीं बस छा रहीं हैं दूरियाँ
रास्ते मुश्किल किये पास आ रहीं हैं दूरियाँ

हर क़दम पर बिछ रहे हैं और कुछ काँटे नये
फ़ासिले कर के मुकम्मिल ला रहीं हैं दूरियाँ

मै मिटा हर पल पलों से दूर जो उनके लिये
बस इन पलों के खेल में ही जा रहीं हैं दूरियाँ

मै चला किस राह पर और मै पहुँचा कहाँ
भटका के मुझको राह से क्या पा रहीं हैं दूरियाँ

इन्सान कि फ़ितरत के मारे ढ़ूँढ़ते फ़िरते हैं हम
दिल में देखो तो कभी भी ना रहीं हैं दूरियाँ

रोहित जैन
12/02/2007